बच्चे हैं अभी
—गुरु गोबिंद सिंह के रंग अति न्यारे हैं, की वो विनम्रता क़ुबूल करते हैं, अभिमान नहीं; वो जागत फूल क़ुबूल करते हैं, कि काँटों पे तो वो सोया करते हैं!
के ये कोई न संगीत की महिफ़िल है, तवायफ़ों का यः मुजरा नहीं, न अहम्कारों की लड़ाई, भ्रमो में लिपटे हुए बेचारों की कतार नहीं!
—की ये मुहब्बत के सौदे हैं, आशिकों की दास्तानें हैं, जो नफ़रतों से उलझते तो देखे हैं, नहीं कभी सुलझते – तवारीख़ चाहे उधेड़ परख़ लें!
गुणन चर्चा ज़रूर, गिनती भी – पर तमगों की क्या कर सके है कोई की लिशक न जाने कितनी बार आयी औ कितनी बार गयी.
अब देखना ये होगा की परमपुरखपरमेश्वरः न जाने बरख़ुरदार को हमसे जोड़ते है, की तोड़ते हैं! चाहे जुड़े तो हमसे पहले भी कभी न थे, टूटे तो अभी भी नहीं हैं, न होंगे कभी!
भड़कते भी वो आप ही हैं
भटकते भी गुमान करे हैं
चेतना में तो पुण्य कमाने का प्रयास करें
अचेतना में फ़िसलते हैं
लुड़कते हैं
लटकते हैं
की जल कर जलेंगे खूब
हमसे वो दावा करने लगे
हैरां हूँ न देख
लकड़ी भी बड़े गुमान में जली
कहि की खूब जली
पर आग लगाने वाली भी वो
मासूम सी तिल्ली थी
जो पहले आप जली
ऐसी क्या जल कर राख़ हुयी
पेड़ से तो छोटी थी पर
उसकी राख़ की वो गुरु
पूर्ण मालिक बनी बैठी
उन्हें अभी तलक मालूम न हुआ की सिर्फ तमीज़दारों से हम बात करे हैं
ताने उनकी अभी भी बेमानी हैं बेतुकी बेथवि हैं मायना बहु दूर बसर करे
बच्चे हैं अभी नहीं जानते की इनाम औ दुआएं भीख़ में न मिला करतीं
न कभी लड़कर किसी को मिलीं न झगड़कर किसी को नसीब ये हुईं
वो जताये की अभी वो ज़हर पीने के आदि हैं
हमें ज़ालिम तक्क कह दीये
इलज़ाम भी हम पे दाग़ दीये
कि फ़ोकट अमृत क्यों बाँटत हो
हम तो यही कह सकें हैं
उन्हें उनकी खूबीयां मुबारक़
हमें हमारी कमीयां ही सही
आदतें औ हमरी तन्हाईयाँ!