हाकम और हिमाक़त
ईतना ज़रूर कह सकूं की आपके धरम की
इन-इन स्थायी बातों के कारण मैं अधर्मी हूँ
—कि अन्य पंथ पे पगचालक हूँ
जो है, उसपे टिप्पणी करने का हक़दार हूँ!
आपके हर धर्मी-अधर्मी दावे पे
बहस करना भी मेरा अर्शी हक़ है
और हाँ, आपको हममति
बना लेने का भी!
औ आपकी किसी अलौकिक सुर पे
कायल हो जाने का भी!
पर मेरा यह कतई हक़्क़ नहीं, की पहले
आपकी, ज़ुबान, से कुछ अर्ज़ कर लेने, की आज़ादी छीनूँ
फिर आपकी, क़लम में स्याही भरने पे पाबन्दी लगा दूँ
के आप खुशखति करने की क़ाबिलियत ही खो दें!
सावधान रहीयेगा हुज़ूर
भाखा आधुनिक करने के बहाने
आपसे आपकी माबोली छीनूँगा
फिर आपकी दहाड़ कर
खिलखिला कर हंस लेने की
ताबीयत का भी क़त्ल करूँगा!
हा! हा! हा! हा!
देखते जाईयेगा कि कैसे
आपके लंगोट के नाले पे
जंगलगा ताला सजाऊँगा
जिस को खोल सकने का
आपको कोई संविधानिक हक़
न वरदान नसीब होगा!
फिर मैं आपकी औरत को शरणार्थी बनाऊंगा
उसके दामन को दाग़ लगा देने की नियत धर
उसके सर पे फुलकारी सजाने का ढोंग रचाऊँगा!
मैं हुक़ूमत हूँ!
मैं हाकम हूँ!
हाँ, और हिमाक़त हूँ!
My response to the Supreme Court verdict on the constitutionality, or rather unconstitutionality, of Triple Talāq.